Sunday 24 January 2016

फेसबुक पर चिपको आंदोलन


इतना तो तय है कि अगर आदमी को काम हो, उसे फालतू चीजों के लिए फुर्सत ही ना हो तो आदमी फेसबुक लाॅगइन नहीं करेगा. एक आदमी जो रोटी-कपड़ा-मकान-दुकान के चक्कर में है वह भी फेसबुक पर नहीं होता. नियमित रूप से खाने-पीने के प्रति लापरवाह, खाते-पीते ऐसे लोग जिनके पास बिजली, कम्प्यूटर और इंटरनेट पर किये गये खर्च का हिसाब रखने के कारण नही हैं.. वो सोशन नेटवर्किंग साईट्स (सो.ने.सा.) पर सहज होते हैं।

कम्प्यूटर इंटरनेट की सुविधा होने के बावजूद फालतू लोग हैं, कोई काम नहीं... तो बस बैठे हैं. दूसरों पर कमेंट करना. सुनी-सुनाई, पढ़ी-पढ़ाई बातों से ही बात का बतंगढ़ बनाना. गलतफहमी होना कि आस-पास पास-पड़ोस में यार-दोस्त नहीं मिल सके तो यहां मिल जायेंगे. किसी ना किसी तरह के नेटवर्क में रहने की भी एक आदिम तलब भी...एक वजह है. भड़ास निकालना. अफवाह फैलाना. चुगलियां करना. व्यर्थ की बतौलेबाजी. टांग खींचना और अजनबी लोगों की टांग खींचना. उपदेश देना. 3 लोग महज इसलिए जबरन फेसबुक पर होते हैं कि उनके अन्य 7 साथी यहां पर हैं. जो बातें कर नहीं पा रहे हैं, करने में सक्षम नहीं है..वो कही जाती हैं तो ऐसी बातों का भी यह एक मंच है. गालियों का भी.

कम्प्यूटरनेट से पहले कुछ लोग हुआ करते थे जिनमें लिखास का जीन्स सक्रिय होता है... उनके लिखे को उन्हीं के समाज-जाति वालों द्वारा छपवाई स्मारिकाओं में भी जगह नहीं मिल पाती थी.. तो उनके लिए भी यह एक उपयुक्त मंच है. लोग फेसबुक पर छपास भी निकालते हैं. किसी मासिक पत्रिका या समाचार पत्र में कोई लेख या कविता भेजनी है तो उसे पहले फेसबुक पर डाल दो... प्राथमिक मूल्यांकन हो जाता है. जिन्हें अच्छा लिखने की गलतफहमी है वह अपने बारे में गाने गा सकता है, जो बुरा लिखते हैं वो दूसरों के अच्छे के आलोचक हो सकते हैं... कि फलां फलां चीज की कहां कहां कमी है। किस किस गुड़ में कहां कहां कुछ गोबर का टच देते तो क्या ही फ्रूंटपंच बनता. पहले अच्छे-खासे लेखकों को स्थापित होने में एक उम्र लग जाती थी, अक्सर तो उसकी पहली दूसरी बरसी पर ही पता चलता था कि वह कितना महान था... आज के लेखक पैदा बाद में होते हैं... सारी सोनोग्राफिक कहानी पहले छप चुकी होती है. लाखों की तादाद में महिला अनुयायी... फोलोवर्स होते हैं। सो.ने.सा. ने विभिन्न तरह की गुटबाजी को काफी सहयोग दिया है...


फिर दुनियां भर की खबरे सुनने को मिलती हैं, उन पर आदमी चिंतित होता है.. अब कुछ करेगा तो मेहनत, ताकत, हिम्मत, दिमाग, पैसा जाने क्या क्या खर्च होगा... फेसबुक पर बैठे-ठाले बतौलेबाजी करो, चिंताओं के चिंतन से सारे नेटवर्क को धन्य करो। खुद चिता पर बैठे हो दूसरों को भी जलाओ, खुद का पक रहा है, दूजों का दिमाग भी दही करो।

फेसबुक टाईमलाईन लोगों के बारे में मोटा मोटा हिसाब तो दे ही देती है। ज़रा भी सच्चाई हो तो किसी की अपलोड या शेयर की तस्वीरें और पठन सामग्री बता देती है कि कौन, किस उम्र में, कैसा और फिलवक्त इनका क्या मिज़ाज है, बावजूद इसके कि यह मुखौटालोक है..धोखा हो सकता है।

आदमी ताउम्र मनोरंजन चाहता है. जैसे देह.दिमाग.मन हैं वैसै वैसे मनोरंजन के जरिये भी... यहां तक की ज्ञान.ध्यान को भी मनोरंजन बना लिया जाता है-

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