Tuesday 28 September 2010

आदमी की औसत उम्र


फिजूल है
आदमी की औसत उम्र की बात

एक आदमी
बस 10 बरस में
बचपने की बेहोशी
भूख प्यास और खंडित कयासों से
दम तोड़ देता है

दूजा जीता है
बीमारियों
धुंधलकों
प्रश्नों,
और जिन्दगी की व्यर्थता के साथ
130 बरस

और आप
तीजे की औसत उम्र 70 बरस
घोषित कर देते हैं

तो फिजूल है
औसत उम्र का गणित


और वो सारे गणित
जो आप जिन्दगी के बारे में लगाते हैं
जिन्दगी का हर कदम
अपवादों की राह पर बढ़ता है

आपकी सांसे सदियों तक चल सकती हैं
आप इसी वक्त ‘सब कुछ से’ नाकुछ हो सकते हैं
और नाकुछ से सारा संसार

जिन्दगी के खेल का
यही मजा है
कि आप चाहें इसके नियम बनायें
चाहें अपवादों की राह चलें
आपका हासिल परिणाम नहीं
वो खेलना होता है,
जो आप खेल रहे हैं
जो आप तब तक खेल सकते हैं
जब तक कि वो क्षण नहीं आता
जिसका आपको नहीं पता है।

देखो आज मैंने
मौत शब्द का
कहीं भी इस्तेमाल नहीं किया।

Wednesday 22 September 2010

जी करता है मिल जाए......


हो गया है निकट दृष्टि दोष
दूर का सब दिखता है स्पष्ट और आकर्षक
पास का सब हो गया है धुंधला विकर्षक
दूर का सब स्पष्ट, चित्ताकर्षक
और हष्ट पुष्ट दिखता है

जी करता है मिल जाए
हर दूर स्थित कल्पना का,
बस एक अनुभव एहसास।
दूर में ही दिखता है,
पाने योग्य समग्र खास।

दूर का हर चेहरा, बहुत सुन्दर है।
दूर की हर काया,
उत्तेजना का लहराता समन्दर है।
दूर का हर रिश्ता बड़ा गहरा है,
दूर का सर्वस्व सपनों में ठहरा है।


पास जो है सब बीत चुका है जैसे
जंग लगा, सब चूक चुका है जैसे
नजर कुछ नहीं आता
बस महसूस होता है बासापन,
जो किसी भी भूख को खा जाता है
ये बासापन
लगता है जैसे सारा भविष्य खा जायेगा।


फफूंद लगे नजारे
बासी कड़ी’याँ
जिन्दगी के सारे उबाल
ठंडे कर देती हैं।

करने को अभी कितना कुछ बाकी है -
फिल्मी हीरोइनें
फिल्मी माई बाप
फिल्मी बच्चे
फिल्मी कारें
फिल्मी रहन-सहन
फिल्मी बाजार
फिल्मी चालाकियाँ, चोरी-डकैती
फिल्मी कत्ल
फिल्मी सजाएं
फिल्मी मौत।

मन के सुरमई अंधकार भरे कोने में
सुविधाओं के गुनगुने ताप पर
लगता है गाँव में -
दादी की गोद की मक्खनी गंध,
मां के चेहरे से टपकता प्यार,
बाप का भविष्य को आकार देता गुस्सा,
मौसी का प्रेरक दुलार,
ताऊ के बच्चों संग कुश्ती,
सब समय नष्ट करना था।

सच और झूठ के छद्म सिद्धांत पढ़े बिना
सच और झूठ की परवाह किये बिना
जो हो रहा है वही सही है जैसे

मां बाप का वृद्धाश्रमों में रहना,
बहू बेटियों का उघड़े बदन बहना।
बच्चों का टीवी चैनलों में गर्क होना।
सब कुछ फलता फूलता नर्क होना।

इंटरनेट पर
हवस की मरीचिका में
हर क्षण लगता है
जैसे कोई अदृश्य रिश्ता
इन ऊब से पके दिनों से
कहीं दूर ले जायेगा

फिर
अचानक अनायास खुल गई
सूनामी, भूकंप, बाढ़ राहत कोश से संबंधित
किसी वेबसाईट को देखकर
मेरा एक खयाल -
कि (मेरे पास हों तो करोड़ों में से...
कुछ लाख तो मैं दूंगा
इन मानवीय कार्यों में।)
बिल गेट्स से ज्यादा।

ये खयाल
मेरे निकट दृष्टिदोष को बेबाक
और दूरदृष्टि को पुष्ट करता
और तैशदार बनाता है।

हालांकि सच और झूठ की
परवाह किये बगैर
एक सांवली बीवी
दो औसत बुद्धि बच्चे
एक अदद बूढ़े मां बाप
हजारों की कमाई से
कुछ सैकड़ा की अपेक्षा किये बिना
इन दुआओं के साथ
कि ”फिल्में देख-देख कर खराब हो चुकी नजर
हकीकत की रोशनी में आ सुलझ जाये
मेरे साथ ही रहते हैं।“

मुझे भी समझना चाहि‍ये
जि‍न्‍दगी 3 घंटे से ....
कुछ ज्‍यादा होती है।

बुल्‍लेशाह की अदभुत वाणी

बुल्‍लेशाह की अदभुत वाणी
http://yogmarg.blogspot.com/2010/09/blog-post.html

Tuesday 14 September 2010

इस लहर के उठने का सबब याद नहीं है

मुद्दत से मेरा दिल है कि आबाद नहीं है
होंठों पे मगर आज भी फरियाद नहीं है

आता है खयालों में मेरे उसका ही चेहरा
बस उस के सिवा कुछ भी मुझे याद नहीं है

फिरते हैं सभी लोग यहां सहमे हुए से
इस शहर में जैसे कोई आजाद नहीं है

देखा है उजड़ते हुए कितने ही घरों को
है कौन जो इस इश्क में बर्बाद नहीं है

इक लहर सी उठी है आज मेरे भी दिल में
इस लहर के उठने का सबब याद नहीं है

पता नहीं कि‍सकी गजल है पर बेहतरीन लगी सो शेयर कर रहे हैं।

Monday 13 September 2010

बड़ी अटपटी दुनियां

Image by : Kees Straver
  
ख्यालों से छंटी दुनियां, कैसे-कैसे बंटी दुनिया
आशाओं-सपनों में उलझी, हकीकत से कटी दुनिया

रिवाजों में सहूलियत है, नयेपन से हटी दुनियां
इतिहास में भविष्य देखे, बड़ी अटपटी दुनियां

स्वाद कैसा होता है अम्मी-अब्बा से जाना
जुबां जब बूढ़ी हुई तो, लगी चटपटी दुनियां

सच-शांति की राहों से बोर हो हटी दुनियां
झूठ और फरेबों के संग्रामों में डटी दुनियां

जिन्दगी के मैदानों में दूर तलक भागी है
डरी-सहमी रहे फिर भी, मौत से सटी दुनियां