Saturday 13 February 2010

वो झुकी निगाह


उस झुकी निगाह को, इंकार कैसे करते हम
याद रही है जन्म भर, फिर वो झुकी निगाह

जब्त कर के चाह को, आह भर कर रह गये
मर गये उस लम्हे में, न कभी उठी निगाह

जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?

सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं
आईने से बातें थीं, थी दम घुटी निगाह

जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह

11 comments:

दिगम्बर नासवा said...

जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह

उक्ने चले जाने के बाद ये तो होना ही था ........ किसी को खो देना आसान नही ... बहुत लाजवाब रचना है ...
...

संजय भास्‍कर said...

जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?

इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

Apanatva said...

सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं
आईने से बातें थीं, थी दम घुटी निगाह

bahut acchee lagee aapkee ye gazal ......

vandana gupta said...

sundar rachna.

निर्मला कपिला said...

जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह
लाजवाब रचना शुभकामनायें

मनोज कुमार said...

ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?


इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया..... बहुत सुंदर और लाजवाब रचना....

रश्मि प्रभा... said...

सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं.....bahut badhiyaa

गवाह said...

nice one....

chandrabhan bhardwaj said...

Sunder rachana hai. Hardik badhai

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