Friday 5 February 2010

द्वैत


देह में ऊपर से नीचे तक
द्वैत है
या,
संतुलन बैठाने की कोशिश।

बुद्धि के दो पक्ष हैं।

आंखें दो हैं,
कि उल्टा और सीधा सब देखें।
दायां और बांयां सब देखें।

बोलों की तालियां बजाने के लिए
दो अधर।

संसार को गतिमान रखती
दो तरफ भुजाएं।
दो कंधे।
ह्रदय के भी दो वाल्व हैं।
दो फेफड़े।
दो जंघाएं, घुटने, पैर।

या,
"मैं एक ही"
कर देता हूँ
अपनी आसानी के लिए
ये बंटवारे।

और डोलता रहता हूं
अनवरत
आती और जाती सांस में
एक से दूसरे बिन्दु की ओर
जितने भी गढ़े हैं दो छोर।

या,
मैं
इन दो छोरों
और मध्य
सबसे परे हूं,
नाकुछ होकर।

और अचानक पैदा हो गया हूं
इस संसार में
जहां नाकुछ होना पाप है।

इसलिए दिखते हैं मुझे
द्वैत।

6 comments:

ghughutibasuti said...

यहाँ कुछ भी होना पाप है।
घुघूती बासूती

निर्मला कपिला said...

या,
"मैं एक ही"
कर देता हूँ
अपनी आसानी के लिए
ये बंटवारे।
गहन चिन्तन ,सुन्दर रचना शुभकामनायें

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर रचना शुभकामनायें

Apanatva said...

adbhut soch liye ek acchee rachana.

दिगम्बर नासवा said...

बहुत गहरे अर्थ छुपे हैं इस मैं में ..... कितने संवाद, कितना कुछ इस मैं की वजह से है दुनिया में ....
बहुत अच्छी रचना है ..........

रश्मि प्रभा... said...

utkrisht bhawnayen....

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