Monday 4 January 2010

कुछ पुराना सा नई शक्‍ल में




ऐसा लगता है कि जिन्दगी मुझ पर अहसान कर रही हो और रोज गिन-गिन कर चढ़ती उतरती सांसे दे रही हो-
जिन्दगी के टुकड़ों पे पलते दिखे
अहसान लादे सिर पे हमते चलते दिखे

जब कभी भी दुनियां के जलवे देखे, एक आह सी उठती रही कि काश ऐसा ही नजारा अपने साथ भी होता, काश ऐसा करारा अहसास, मजेदार अनुभव हमें भी होता,  पर-
दिल में दल-दल थे कई इच्छाओं के
जहर के कई बुलबुले उबलते दिखे

कई मगजसमृद्ध लोग जो जवानी में... अपने उफान में कहते थे कि ‘‘वो ये कर देंगे वो कर देंगे’’, आखिरी समय में बड़े ही दीन-हीन अवस्था में, लाचारी व्यक्त करते मिले, दुनि‍यां को समझा-समझा कर हार गये और -
दुनियां बदलने की सनक जिन पे दिखी
ढलती उम्र में हाथों को मलते दिखे

कई लोग देखे जो सारा दिन की पाप कर्मों की यात्रा पर निकलने से पहले रोज नियम से सुबह 5.30 बजे हनुमान जी के मन्दिर में अगरबत्ती दिया लगाते थे, कई नियम से रविवार के रविवार सत्संग भजन में जाते थे, कुछ नमाज पढ़ते थे, कुछ रोज सुबह सुबह मंत्र पढ़कर पड़ोसियों को जगाते थे या डराते थे पता नहीं? पर ये भी पता नहीं वह दुनियां को धोखा दे रहे थे या अपने आप को -
दान-पुण्य, सत्संग-भजन, जप-तप, नमाज
आदमी तो आदमी, खुद को छलते दिखे

रिश्तों में भी कोई गहराई नहीं देखी, बहुत ही उथलापन आ गया है, संवेदनाओं-भावनाओं अपनेपन की नदी सूख चुकी है और इस नदी की यात्रा में इसके सीने में छुपे तीखे धारदार पत्थर पांवों को छालों से भर देते हैं। कौन सा रिश्ता निःस्वार्थ रह गया है? सारे जमाने में ढूंढो... सच्चे दोस्त छोड़ो, दोस्ती का नाटक करने वाले दोस्त भी नहीं मिलते। आदमी रोता-गाता ही रह जाता है ‘‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले झूठा ही सही’’ -
दोस्त-प्रेमी, माँ-बाप-भाई, मामा-मौसी के चोंचले
रिश्तों की विषबेल लपटों में क्या नहीं जलते दिखे

गांव में सोचा की गंवार लोग होते हैं चलो शहर में रहते हैं पर छोटे शहर महानगरों की संस्कृति को पछाड़ रहे थे। सारी चालाकियां, धोखे सीधे आयात कर लिये गये थे, और दिल्ली ही नहीं हमारे कस्बे की गलियों में भी हर तरह का डुप्लीकेट माल मिल रहा था। कस्बों के लोग ज्यादा तेज, चतुर और घाघ हो गये थे -
जंगलों से बहुत डर कर शहर का जो रूख किया
सांप, बिच्छू भेड़िये, आस्तीनों में पलते दिखे

ईमानदारी, धर्म और सिद्धांतों की बातों किताबों में दफ्न हो गई हैं। लोग सब कुछ कहते हैं धर्म के नाम पर, इंसानियत के नाम पर, धरती को बचाने जैसी बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, प्रेम इंसानियत की दुहाई दी जाती है पर कार, गीजर, ऐ.सी.  से लेकर गर्म गोश्त तक किस चीज का लालच कौन छोड़ पाया है। महात्मा गांधी, मजबूरी का नाम हैं।
ये वफा का शोरबा, बीमार दिल का स्वाद है
आजकल के मजनू रोज, नई उत्तेजना तलते दिखे

और अब समग्र -

जिन्दगी के टुकड़ों पे पलते दिखे
अहसान लादे सिर पे हम चलते दिखे
दिल में दल-दल थे कई इच्छाओं के
जहर के कई बुलबुले उबलते दिखे
दुनियां बदलने की सनक जिन पे दिखी
ढलती उम्र में हाथों को मलते दिखे
दान-पुण्य, सत्संग-भजन, जप-तप, नमाज
आदमी तो आदमी, खुद को छलते दिखे
दोस्त-प्रेमी, माँ-बाप-भाई, मामा-मौसी के चोंचले
रिश्तों की विषबेल लपटों में क्या नहीं जलते दिखे
जंगलों से बहुत डर कर शहर का जो रूख किया
सांप, बिच्छू भेड़िये, आस्तीनों में पलते दिखे
ये वफा का शोरबा, बीमार दिल का स्वाद है
आजकल के मजनू रोज, नई उत्तेजना तलते दिखे

5 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत खूब लिखा है। बहुत से भाव शायद बहुतों के मन की बात कह रहे हैं।
घुघूती बासूती

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

दुनियां बदलने की सनक जिन पे दिखी
ढलती उम्र में हाथों को मलते दिखे

क्या बात है , अति सुन्दर !

Udan Tashtari said...

अभिनव प्रयोग...एक बार हमने इसी तरह का प्रयोग किया था...ऐसे बनी गज़ल...


पसंद आया!!बधाई.


’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’

डॉ टी एस दराल said...

दुनियां बदलने की सनक जिन पे दिखी
ढलती उम्र में हाथों को मलते दिखे

वाह, क्या बात कही है।

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब लिखा है ....... भावों को समझा कर और फिर रचना के माध्यम से बहुत शशक्त रूप से उभारा है ........

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